उल्फ़त में ऐसी लग़्ज़िश-ए-मस्ताना चाहिए दर पर तिरे गिरें तो सँभलना न चाहिए है आलम-ए-शबाब किसी का निगाह में मेरी नज़र को और तमाशा न चाहिए साक़ी की इक निगाह पे मदहोश बज़्म है गर्दिश में अब तो साग़र-ओ-मीना न चाहिए चिलमन की तीलियों से रुकी कब निगाह-ए-शौक़ उस पर कभी भी बंदिश-ए-बेजा न चाहिए साक़ी-गरी की लाज रखो ये तो एहतिमाम कोई भी रिंद बज़्म में प्यासा न चाहिए फ़र्ज़ानगी से तय हुई कब मंज़िल-ए-हयात रख़्त-ए-सफ़र में इक दिल-ए-दीवाना चाहिए हर हर क़दम पे सोच के चलना अजीब है जीने को कुछ तो जुरअत-ए-रिंदाना चाहिए कम है 'हबीब' उम्र तअस्सुफ़ के वास्ते दुनियाँ को बात बात पे झुटलाना चाहिए