उम्र सारी यूँ शब-ए-हिज्र में बीतेगी क्या कोई दस्तक सी तिरे दिल पे नहीं होती क्या अपने पहलू में उतरते हुए देखा है क़मर होगी इस ख़्वाब की ता'बीर कभी पूरी क्या इतने हैरान हो तुम किस लिए आख़िर साहब कौन सी दुनिया से हो धूप नहीं देखी क्या इक मुसव्विर मेरी तस्वीर बना कर हारा कूचियाँ रंगों की मौजों पे कभी चलती क्या फिर तुम्हें इल्म समुंदर के नमक का होगा ओस आँखों से किसी की कभी तुम ने पी क्या ये जो हंगामा बपा रहता है दिन-रात ‘कमल’ मेरे दिल में कोई रहने लगा है वहशी क्या