उन के दर को दवा समझते थे या'नी दारुश्शिफ़ा समझते थे क्यूँ न आता अज़ाब बस्ती पर लोग ख़ुद को ख़ुदा समझते थे वो भी अपनी क़बील का निकला हम जिसे पारसा समझते थे हम पहनते थे जूते अब्बा के और ख़ुद को बड़ा समझते थे वो नज़र का फ़रेब था 'शाफ़ी' हम जिसे क़ाफ़िला समझते थे