उन से मिलने की इल्तिजा की है दिल-ए-नादाँ ने ये ख़ता की है मैं खिंचा जा रहा हूँ उस की तरफ़ ये कशिश हुस्न-ए-फ़ित्ना-ज़ा की है ख़ुद-फ़रेबी में मुब्तला रख कर ज़ुल्म की तुम ने इंतिहा की है क़ौल और फ़े'ल में तज़ाद रवा बात कुछ पीर-ए-पारसा की है दौर-ए-हाज़िर के पेशवाओं में ख़्वाहिश-ए-सीम-ओ-ज़र बला की है जीते जी मग़्फ़िरत का ख़्वाहाँ हूँ बात अब ज़हमत-ए-दुआ की है ये मन-ओ-तू की कार-फ़रमाई ज़ेहन-ए-आदम ने जा-ब-जा की है मक़्सद-ए-ज़िंदगी समझ बैठा चश्म-ए-बीना जो उस ने वा की है झुक रही है 'अज़ीम' अपनी जबीं ये करामत तो नक़्श-ए-पा की है