उन में जुरअत भी न थी जौर-ओ-जफ़ा क्या करते ख़ुद फ़ना-दीदा थे वो हम से वफ़ा क्या करते देखते देखते की नक़्द अदा जान-ए-अज़ीज़ सोचते हम रहे वो क़र्ज़ अदा क्या करते रौशनी दिल में थी इक हुस्न-ए-नज़र से उन की ज़िक्र हम मातम-ए-अंदोह-रुबा क्या करते जीना यादों के सहारे हुआ दुश्वार 'शरार' क़र्ज़ हम उन की मोहब्बत का अदा क्या करते