वो दिलकशी तिरी क्या हुस्न-ए-यार बाक़ी है शबाब बाक़ी न उस का ख़ुमार बाक़ी है निगाह-ए-शौक़ ने आँखों से उन के पी थी कभी उस एक जाम का अब तक ख़ुमार बाक़ी है तुम्हारे वा'दा-ए-फ़र्दा का है यक़ीं अब तक तमाम उम्र कटी इंतिज़ार बाक़ी है तसल्लियों में मिटाया शुऊर-ए-ग़म तुम ने तुम्हीं बताओ कहाँ ए'तिबार बाक़ी है मिज़ाज-ए-मोमिन-ए-मिल्लत समझ में आया है जहाँ में तज़्किरा-ए-जुल्फ़िक़ार बाक़ी है रहेगा ताज सरों पर या सर कटें उस जा इस एक अज़्म पे दार-ओ-मदार बाक़ी है बदल सका न मिज़ाज-ए-जुनूँ अभी मैं ने 'शरार' ज़ेहन पे कुछ इंतिज़ार बाक़ी है