उन से भी कहाँ मेरी हिमायत में हिला सर कहते थे जो हर बात पे हाज़िर है मिरा सर हाँ ये है कि आहिस्ता-कलामी का हूँ मुजरिम ख़ामोश-मिज़ाजी तो है इल्ज़ाम सरासर जिस रोज़ से आया है ये क़ातिल की नज़र में उस रोज़ से झुकने की अदा भूल गया सर ग़ैरत के मुक़ाबिल थी ज़रूरत भी हवस भी ये मा'रका मुश्किल था मगर हम ने किया सर इक रोज़ इक इंसाँ ने मुझे कह दिया इंसाँ उस रोज़ बहुत देर न सज्दे से उठा सर