उन से उम्मीद-ए-रू-नुमाई है क्या निगाहों की मौत आई है हुस्न मसरूफ़-ए-ख़ुद-नुमाई है इश्क़ का दौर इब्तिदाई है दिल ने ग़म से शिकस्त खाई है उम्र-ए-रफ़्ता तिरी दुहाई है दिल की बर्बादियों पे नाज़ाँ हूँ फ़त्ह पा कर शिकस्त खाई है मेरे मा'बद नहीं हैं दैर-ओ-हरम एहतियातन जबीं झुकाई है वो हवा दे रहे हैं दामन की हाए किस वक़्त नींद आई है खुल गया उन की आरज़ू में ये राज़ ज़ीस्त अपनी नहीं पराई है शम्अ' परवाना हों कि ग़ुंचा-ओ-गुल ज़िंदगी किस को रास आई है गुल फ़सुर्दा चमन उदास 'शकील' यूँ भी अक्सर बहार आई है