उन्हें भी एक नज़र देख दूर जाते हुए जो रो रहे हैं मुक़द्दर के गीत गाते हुए ख़िज़ाँ में काग़ज़ी गुल से बहार लाते हुए उदास लोगों को देखा है मुस्कुराते हुए ज़रा सी देर पस-ए-पर्दा मुझ को रोने दे मैं थक गया तिरी महफ़िल में मुस्कुराते हुए जो सुन के देखा तो जाना कि रो रही है बहुत ये साँस आज भी शहनाइयाँ बजाते हुए क़रीब आने का कहता है दूर जा के मुझे वो दर्द बाँटने लगता है दिल दुखाते हुए सरों पे धूप तो पैरों में आबले पहने हमारी उम्र कटी है भरम बचाते हुए मुझे लगा है उसे भी मिरी ज़रूरत है वो आज रोया है मुझ को गले लगाते हुए ठहर गया था यहाँ मौसम-ए-ख़िज़ाँ 'शाहिद' कि सर झड़े हैं चमन में बहार लाते हुए