उन्हीं काँटों से जो फूलों की ज़बाँ होते हैं कितने अफ़्साने गुलिस्ताँ के बयाँ होते हैं मैं ही आवारा सा फिरता हूँ किसी की ख़ातिर लोग यूँ रात को सड़कों पे कहाँ होते हैं छोड़ देते हैं वहाँ दर्द के कितने नश्तर हम ग़ज़ल-ख़्वाँ तिरी महफ़िल में जहाँ होते हैं एक हद तक जो बुझा देते थे शो'ले दिल के अब इन आँखों में वो आँसू भी कहाँ होते हैं एक दुनिया-ए-ख़िरद दिल से लिपट जाती है हम जो उस शोख़ की जानिब निगराँ होते हैं हम वो अंदेशा-ए-फ़र्दा हैं चमन में 'नाज़िम' गुल के चेहरे से जो हर आन अयाँ होते हैं