ये तो नहीं मालूम कि क्या बात हुई थी हाँ साहिल-ए-दरिया पे बहुत भीड़ लगी थी अपनी रविश-ए-कज-कुलही से न बनी बात सुनते हैं कि इस ढंग से बहुतों की बनी थी हम दिन के उजालों को दुआ दो कि अभी तक कूचे में तुम्हारे शब-ए-तारीक बसी थी देखा था किसी शोख़ ने शब ख़्वाब चमन का रौंदे हुए फूलों की अदा बोल रही थी जिद्दत के उजाले में भी पलते हैं अंधेरे किसी धूप के मारे ने ख़ुदा लगती कही थी चुप-चाप चले आए तुम अच्छा हुआ 'नाज़िम' साक़ी से उलझना भी तो इक बे-अदबी थी