उस अदा से भी हूँ मैं आश्ना तुझे इतना जिस पे ग़ुरूर है मैं जियूँगा तेरे बग़ैर भी मुझे ज़िंदगी का शुऊ'र है न हवस मुझे मय-ए-नाब की न तलब सबा-ओ-सहाब की तिरी चश्म-ए-नाज़ की ख़ैर हो मुझे बे-पिए ही सुरूर है जो समझ लिया तुझे बा-वफ़ा तो फिर इस में तेरी भी क्या ख़ता ये ख़लल है मेरे दिमाग़ का ये मिरी नज़र का क़ुसूर है कोई बात दिल में वो ठान के न उलझ पड़े तिरी शान से वो नियाज़-मंद जो सर-ब-ख़म कई दिन से तेरे हुज़ूर है मुझे देंगी ख़ाक तसल्लियाँ तिरी जाँ-गुदाज़ तजल्लियाँ मैं सवाल-ए-शौक़-ए-विसाल हूँ तो जलाल-ए-शो'ला-ए-तूर है मैं निकल के भी तिरे दाम से न गिरूँगा अपने मक़ाम से मैं 'क़तील'-ए-तेग़-ए-जफ़ा सही मुझे तुझ से इश्क़ ज़रूर है