उस नज़र से जो राब्ता हो जाए कुछ न होना भी हादिसा हो जाए वो करें इल्तिजा मैं तर्क करूँ मुझ को इक ऐसा तज्रबा हो जाए यूँ न हो फिर हो तेरा क़ुर्ब नसीब यूँ न हो फिर ये सानेहा हो जाए नाम लेते ही दिल धड़कता है सामने आए वो तो क्या हो जाए काम कितना है उस की यादों का आज फिर से न रतजगा हो जाए जब अज़िय्यत हैं क़ुर्बतें 'शहनाज़' फिर तो बेहतर है फ़ासला हो जाए