उस साज़ की आवाज़ ज़रा भी नहीं आती दिल टूटता है और सदा भी नहीं आती रंग उड़ गया ऐसा जो दुल्हन हो गई बेवा हाथों में नज़र उस के हिना भी नहीं आती ये है नई तहज़ीब की उर्यानी का आलम फ़ख़्र इस को समझने में हया भी नहीं आती रौशन वो चराग़ अपने अज़ाएम से किया है इस सम्त हवा की तो हवा भी नहीं आती मरने से न घबराओ अगर हादिसा आए मर्ज़ी न हो रब की तो क़ज़ा भी नहीं आती हर बात में वो इज्ज़ के पैकर हैं नज़र हम लब पर कभी गुफ़्तार-ए-अना भी नहीं आती