उस से गिला करूँ कि उसे भूल जाऊँ मैं वो वक़्त आ पड़ा है कि सब कुछ गँवाऊँ मैं किस को दिखाऊँ अपनी शब-ए-तार-तार को साया भी कोई हो तो उसे कुछ बताऊँ मैं मग़रूर हो गया है मुझे मुझ से छीन कर ऐ काश उस को उस से कभी छीन लाऊँ मैं क़िस्से सुना रहा है मिरी बेवफ़ाई के उस की तरह से ख़ुद को कभी आज़माऊँ मैं कोई निशाँ मिले न किसी मौज को कभी गहरे समुंदरों में कहीं डूब जाऊँ मैं इक बार मुझ को उठ के गले से लगा भी ले किस को ख़बर है फिर यहाँ आऊँ न आऊँ मैं महव-ए-तिलिस्म-ए-शोख़ी-ए-रेग-ए-रवाँ है दिल अब बैठ के कहाँ तिरी सूरत बनाऊँ मैं जी चाहता है घूमूँ मैं 'अजमल' ख़ला-ख़ला अपने बदन के पार कहीं मुस्कुराऊँ मैं