उस तरफ़ अहल-ए-हसद हैं जो बुझाते हैं चराग़ इस तरफ़ हम हैं चराग़ों से जलाते हैं चराग़ चैन माँ-बाप की आँखों को नहीं आता है जब तलक लौट के घर में नहीं आते हैं चराग़ ये तरक़्क़ी है कि तहज़ीब का गिरता मेआ'र आँखें इस दौर में सूरज से मिलाते हैं चराग़ उस तरफ़ वो भी परेशाँ हैं मोहब्बत कर के रात भर हम भी जलाते हैं बुझाते हैं चराग़ मैं ज़ईफ़ी के अँधेरों में पड़ा हूँ अपने कब तलक देखो मिरा साथ निभाते हैं चराग़ सब की फ़ितरत में नहीं होता उजाले करना अपने घर को भी कभी आग लगाते हैं चराग़ हो गई ख़ाक मोहब्बत की कहानी लेकिन आज भी हम तिरी यादों के जलाते हैं चराग़ हम से आती नहीं नफ़रत की तिजारत ऐ 'फ़राज़' हम सुख़नवर हैं मोहब्बत के जलाते हैं चराग़