उसे शौक़-ए-ग़ोता-ज़नी न था वो कहाँ गया मिरे नज्म-ए-आब मुझे बता वो कहाँ गया जो लकीर पानी पे नक़्श थी वो किधर गई जो बना था ख़ाक पे ज़ाइचा वो कहाँ गया कहाँ टूटे मेरी तनाब-ए-जिस्म के हौसले जो लगा था ख़ेमा वजूद का वो कहाँ गया जो ज़मीन पाँव तले बिछी थी किधर गई वो जो आसमान सरों पे था वो कहाँ गया गए किस जिहत को तिकोन ख़्वाब के ज़ाविए जो रुका था आँख में दायरा वो कहाँ गया अभी अक्स उस का उभर रहा था कि दफ़अ'तन मिरे आईने से बिछड़ गया वो कहाँ गया