उस के ग़म में हयात भूल गए रौनक़-ए-काएनात भूल गए एक मुद्दत में तो मिले उस से फिर भी कहने की बात भूल गए इक हसीं वारदात के आगे ज़ीस्त के हादसात भूल गए इश्क़ में लोग हम से क्या बदले वो भी तो इल्तिफ़ात भूल गए कितने बे-ख़ुद हैं उस के ग़म के सिवा तल्ख़ी-ए-वाक़िआ'त भूल गए ऐश-ओ-इशरत में खो गए इतना हस्ती-ए-बे-सबात भूल गए उस से मिल कर थे इस क़दर ख़ुश हम कि हर इक ग़म की रात भूल गए माल-ओ-ज़र हाथ क्या लगा उन के लोग अपनी भी ज़ात भूल गए ज़ह्न पर इतना छा गए वो 'ज़फ़र' फ़िक्र-ए-मौत-ओ-हयात भूल गए