उतार लफ़्ज़ों का इक ज़ख़ीरा ग़ज़ल को ताज़ा ख़याल दे दे ख़ुद अपनी शोहरत पे रश्क आए सुख़न में ऐसा कमाल दे दे सितारे तस्ख़ीर करने वाला पड़ोसियों से भी बे-ख़बर है अगर यही है उरूज-ए-आदम तो फिर हमें तू ज़वाल दे दे तिरी तरफ़ से जवाब आए न आए पर्वा नहीं है इस की यही बहुत है कि हम को यारब तू सिर्फ़ इज़्न-ए-सवाल दे दे हमारी आँखों से अश्क टपकें लबों पे मुस्कान दौड़ती हो जो हम ने पहले कभी न पाया तू अब के ऐसा मलाल दे दे कभी तुम्हारे क़रीब रह कर भी दूरियों के अज़ाब झेलें कभी कभी ये तुम्हारी फ़ुर्क़त भी हम को लुत्फ़-ए-विसाल दे दे