उठाओ लौह-ओ-क़लम हादसे तमाम लिखूँ रवाँ सदी में हुआ है जो क़त्ल-ए-आम लिखूँ नसीम-ए-सुब्ह इबारत है तेरी ख़ुश्बू से सबा की नर्म-रवी को तिरा ख़िराम लिखूँ उलझती साँसों की तफ़्सीर ख़ूँ-चकाँ नग़्मा सुकूत टूट भी जाए तो किस के नाम लिखूँ हरीम-ए-ज़ात फ़रोज़ाँ है जिस के परतव से उसी झलक को उफ़ुक़ पर मह-ए-तमाम लिखूँ कोई तो सुब्ह-ए-रिफ़ाक़त से कर सकूँ ता'बीर कोई तो शाम तिरे साथ अपने नाम लिखूँ छलक रही है सुबूही क़दम की लग़्ज़िश से सियाह चश्म की गर्दिश को दौर-ए-जाम लिखूँ अजब इशारे हैं नीची निगाह के 'इशरत' वो जितने रंज भी दे ख़ुद को शाद-काम लिखूँ