वाँ नक़ाब उट्ठी कि सुब्ह-ए-हश्र का मंज़र खुला या किसी के हुस्न-ए-आलम-ताब का दफ़्तर खुला ग़ैब से पिछले पहर आती है कानों में सदा उट्ठो उट्ठो रहमत-ए-रब्ब-ए-उला का दर खुला आँख झपकी थी तसव्वुर बंध चुका था यार का चौंकते ही हसरत-ए-दीदार का दफ़्तर खुला कू-ए-जानाँ का समाँ आँखों के आगे फिर गया सुब्ह-ए-जन्नत का जो अपने सामने मंज़र खुला रंग बदला फिर हवा का मय-कशों के दिन फिरे फिर चली बाद-ए-सबा फिर मय-कदे का दर खुला आ रही है साफ़ बू़-ए-सुंबुल-ए-बाग़-ए-जिनाँ गेसु-ए-महबूब शायद मेरी मय्यत पर खुला चार-दीवार-ए-अनासिर फाँद कर पहुँचे कहाँ आज अपना ज़ोर-ए-वहशत अर्श-ए-आज़म पर खुला चुप लगी मुझ को गुनाह-ए-इश्क़ साबित हो गया रंग चेहरे का उड़ा राज़-ए-दिल-ए-मुज़्तर खुला अश्क-ए-ख़ूँ से ज़र्द चेहरे पर है क्या तुर्फ़ा बहार देखिए रंग-ए-जुनूँ कैसा मिरे मुँह पर खुला ख़ंजर-ए-क़ातिल से जन्नत की हवा आने लगी और बहार-ए-ज़ख़्म से फ़िरदौस का मंज़र खुला नीम-जाँ छोड़ा तिरी तलवार ने अच्छा किया एड़ियाँ बिस्मिल ने रगड़ीं सब्र का जौहर खुला सोहबत-ए-वाइज़ में भी अंगड़ाइयाँ आने लगीं राज़ अपनी मय-कशी का क्या कहें क्यूँकर खुला हाथ उलझा है गरेबाँ में तो घबराओ न 'यास' बेड़ियाँ क्यूँकर कटीं ज़िंदाँ का दर क्यूँकर खुला