वादों ही पे हर रोज़ मिरी जान न टालो है ईद का दिन अब तो गले हम को लगा लो हर वक़्त मियाँ ख़ूब नहीं गालियाँ देनी क्या बकते हो तुम यावा ज़बाँ अपनी सँभालो पहुँचे को छुड़ाओगे बड़े मर्द हो ऐसे तुम पहले मिरे हाथ से दामन तो छुड़ा लो दीवाने का है तेरे ये आलम कि परी भी देख उस को ये कहती है कोई उस को बुला लो इस शोख़ की आँखों के जो जाता हूँ मुक़ाबिल कहती हैं निगाहें कि उसे मार ही डालो यूँ फिरते हो मक़्तल पे शहीदान-ए-वफ़ा के दामन तो ज़रा हाथ में तुम अपने उठा लो जाँ डालता है 'मुसहफ़ी' क़ालिब में सुख़न के मुश्किल है कि तुम उस की तरह शेर तो ढालो गो ज़मज़मा-ए-देहली ओ कू लहजा-ए-पूरब क्यूँ उस की तरफ़ होते हो नाहक़ को रज़ालो