वादी-ए-ग़म में तेरे साथ साथ भटक रहा हूँ मैं तुझ को मिरी तलाश है और तुझे ढूँडता हूँ मैं हँसता हूँ बोलता भी हूँ रोता हूँ सोचता भी हूँ पूरा मिज़ाज-ए-आदमी सब को दिखा रहा हूँ मैं इतना हुजूम-ए-आदमी है कि हिसाब में नहीं फिर भी गिला है आँख से कुछ नहीं देखता हूँ मैं देखता हूँ मैं वाक़िआत सिलसिला-ए-तग़ैय्युरात सदियों से वस्त में बना शहर का रास्ता हूँ मैं मौजा-ए-गर्द-ए-रह उठा हासिल-ए-ज़िंदगी लगा क़ाफ़िला-ए-हयात की सई से आश्ना हूँ मैं