वज्ह-ए-क़रार-ओ-राहत-ए-दिल-ज़दगाँ है तू कि मैं लफ़्ज़-ए-यक़ीं है तू कि मैं हर्फ़-ए-गुमाँ है तू कि मैं तेरा भी आस्ताँ वही मेरा भी आशियाँ वही उस की सहर है तू कि मैं उस की अज़ाँ है तू कि मैं जिस की तराश के लिए ख़ुद को लहू लहू किया अब उसी रहगुज़ार का संग-ए-गिराँ है तू कि मैं अपनी ख़बर से बे-ख़बर अपनी ही ज़ात से मफ़र अपनी ही दास्ताँ का इक हर्फ़-ए-ज़ियाँ है तू कि मैं जिस की नज़र में ख़ार है अर्ज़-ए-वतन की आबरू उस का हदफ़ है तू कि मैं उस की कमाँ है तू कि मैं