वक़्त गर्दिश में ब-अंदाज़-ए-दिगर है कि जो था तन में जाँ है कि जो थी दोश पे सर है कि जो था क़ाफ़िले लुटते गए बुझते गए दिल लेकिन एक हंगामा सर-ए-राहगुज़र है कि जो था तेशा-ए-फ़िक्र वही नश्तर-ए-एहसास वही ज़ख़्म-ए-सर है कि जो था ज़ख़्म-ए-जिगर है कि जो था साथ क़दमों के लगा चलता है अपना साया वही हम हैं वही सहरा-ए-सफ़र है कि जो था आदमी अपने ख़यालों का सुलगता पैकर ख़ुद-निगर है कि जो था ख़ाक-बसर है कि जो था आँख वालों ने तो हर मोड़ पे बदले अंदाज़ एक अपना वही अंदाज़-ए-नज़र है कि जो था आग जंगल की बुझाए ये पड़ी है किस को वुसअ'त-ए-जाँ में वही रक़्स-ए-शरर है कि जो था अक़्ल ये तेरी ही पूँजी है समझ या न समझ दिल इक उजड़ा हुआ जलता हुआ घर है कि जो था पूछने आए हैं बिछड़े हुए लम्हे 'हुर्मत' क्या वही सिलसिला-ए-शाम-ओ-सहर है कि जो था