वक़्त के साथ नई सोच में ढल जाते हैं हम वो सिक्के हैं जो हर दौर में चल जाते हैं इतने मानूस हुए मुझ से मिरे घर के चराग़ शाम होते ही मुझे देख के जल जाते हैं देख लेता हूँ जो कुछ देर तिरी आँखों को तेरी आँखों से मिरे ख़्वाब बदल जाते हैं इक तकल्लुफ़ में लिहाफ़ों का सहारा ले कर आस्तीनों में छुपे साँप भी पल जाते हैं वक़्त कब हाथ से जाता है किसी के 'साहिर' वक़्त के हाथ से हम लोग निकल जाते हैं