वरक़ वही था मगर दूसरी परत चाही कि मैं ने उस की मोहब्बत से मंफ़अत चाही मज़ा अजब था मोहब्बत भरी लड़ाई में कि छेड़ कर उसे फ़ौरी मुज़ाहिमत चाही बिछड़ते वक़्त उसे मुड़ के भी नहीं देखा तमाम उम्र जुदाई में आफ़ियत चाही मैं और ही था जुदा ही था इस ज़माने से और उस ने क़ैस के जैसी मुताबक़त चाही ख़ुद अपनी ज़ीस्त को बर्बाद कर लिया आख़िर कि जिस ने मुझ से ज़रा भी मुनाफ़िक़त चाही न जाने क्यों मुझे ठुकरा दिया ज़माने ने न सीम-ओ-ज़र की तलब की न सल्तनत चाही बस एक बार मुझे खोल कर पढ़ा 'आबिद' फिर उस ने मेरी मोहब्बत से मा'ज़रत चाही