वीरानियों में सब्ज़ा उगाती रही हूँ मैं हरियालियों का रूप दिखाती रही हूँ मैं ख़ून-ए-जिगर से सींच के बंजर क़दम क़दम पत्थर के दिल में फूल खिलाती रही हूँ मैं उस का फ़रेब रास उसे आ गया मगर सच्चाइयों से आँख मिलाती रही हूँ मैं तेरी नवाज़िशें भी रहीं मेरी ज़िंदगी और तुझ को आइना भी दिखाती रही हूँ मैं उस की निगाह तकती रही मुझ को ग़ौर से और मीठी चाँदनी में नहाती रही हूँ मैं 'ज़र्रीं' अगरचे छिड़ ही गया क़िस्सा-ए-वफ़ा तस्वीर बस वफ़ा की बनाती रही हूँ मैं