वो बिगड़े हैं रुके बैठे हैं झुँजलाते हैं लड़ते हैं कभी हम जोड़ते हैं हाथ गाहे पाँव पड़ते हैं गए हैं होश ऐसे गर कहीं जाने को उठता हूँ तो जाता हूँ इधर को और उधर को पाँव पड़ते हैं हमारा ले के दिल क्या एक बोसा भी नहीं देंगे वो यूँ दिल में तो राज़ी हैं मगर ज़ाहिर झगड़ते हैं जो तुम को इक शिकायत है तो मुझ को लाख शिकवे हैं लो आओ मिल भी जाओ ये कहीं क़िस्से नबड़ते हैं उधर वो और आईना है और काकुल बनाना है इधर वहम और ख़ामोशी है और दिल में बिगड़ते हैं यहाँ तो सब हमारी जाँ को नासेह बन के आते हैं वहाँ जाते हुए दिल छूटते हैं दम उखड़ते हैं न दिल में घर न जा महफ़िल में याँ भी बैठना मुश्किल तिरे कूचे में अब ज़ालिम कब अपने पाँव गड़ते हैं सहर को रोऊँ या उन को मनाऊँ दिल को या रोकूँ ये क़िस्मत वादे की शब झगड़े सौ सौ आन पड़ते हैं कभी झिड़की कभी गाली कभी कुछ है कभी कुछ है बने क्यूँ कर कि सौ सौ बार इक दम में बिगड़ते हैं 'निज़ाम' उन की ख़मोशी में भी सदहा लुत्फ़ हैं लेकिन जो बातें करते हैं तो मुँह से गोया फूल झड़ते हैं