वो चाल चल कि ज़माना भी साथ चलने लगे निगार-ए-ज़ीस्त तिरी सम्त रुख़ बदलने लगे वफ़ूर-ए-यास में मुज़्दा है किस के आने का ये आज क्यूँ सर-ए-मिज़्गाँ चराग़ जलने लगे ज़माना फेर ले आँखें तो क्या गिला उस का सितम तो ये है कि तुम भी नज़र बदलने लगे मुझे ये डर है ब-ईं वस्फ़-ए-एहतिराम-ए-वफ़ा न तेरी चश्म-ए-मोहब्बत कहीं बदलने लगे ये दाग़-ए-सज्दा तो नंग-ए-जबीं है ऐ ज़ाहिद अगर न सोज़-ए-मोहब्बत से दिल पिघलने लगे न पूछ किस निगह-ए-ख़ास का तसर्रुफ़ है क़दम जो राह-ए-मोहब्बत में ख़ुद सँभलने लगे 'हमीद' शाम-ए-ग़रीबाँ का किस लिए शिकवा वो देख जानिब-ए-मंज़िल चराग़ जलने लगे