वो जो तुम ने ग़म दिया था मुझे साज़गार होता अगर इतना और होता कि वो उस्तुवार होता तिरी बे-रुख़ी के सदक़े मुझे आ गया है जीना न तो रूठता न ज़ालिम मुझे ग़म से प्यार होता शब-ओ-रोज़ के नज़ारे ये करिश्मे रंग-ओ-बू के ये तिलिस्म तोड़ देता अगर इख़्तियार होता उसे वक़्फ़-ए-ख़ाक कर के किया ख़ूब तू ने वर्ना ये वो ज़र्रा था कि उठता तो फ़लक पे बार होता कभी एक बार भी तो मिरा तज़्किरा चमन में ब-ज़बान-ए-गुल न होता ब-ज़बान-ए-ख़ार होता लो सुनो कि अब ज़माना तुम्हें कह रहा है क्या कुछ यही मैं जो अर्ज़ करता तुम्हें नागवार होता मिरे पास-ए-ज़ब्त-ए-ग़म को न हुआ पसंद वर्ना न मुझे क़रार होता न तुम्हें क़रार होता अरे 'नूर' कौन सुनता तिरा उज़्र-ए-बे-गुनाही तू गुनाह भी न करता तो गुनाहगार होता