वो मेरा यार था मुझ को न ये ख़याल आया मैं अपने ज़ेहन का सब बोझ उस पे डाल आया अब उस के पास कोई संग फेंकने को नहीं फ़ज़ा में आख़िरी पत्थर भी वो उछाल आया तमाम भीड़ में इक मैं ही पुर-सुकूँ था बहुत तमाम भीड़ को मुझ पर ही इश्तिआल आया अजब जुनून है ये इंतिक़ाम का जज़्बा शिकस्त खा के वो पानी में ज़हर डाल आया कल अपने-आप से जब लड़ते लड़ते हार गया तो एक शख़्स का फिर देर तक ख़याल आया वो बे-सबब ही ख़फ़ा था मगर मैं आज 'अज़हर' गले में उस के भी बाँहों का हार डाल आया