वो तग़ाफ़ुल को इलाज-ए-ग़म-ए-पिन्हाँ समझा चारा-गर भी न मिरे दर्द का दरमाँ समझा ताब-ए-दीदार न लाई निगह-ए-नाज़-परस्त और वो दीदा-ए-उश्शाक़ पे एहसाँ समझा जम्अ ख़ातिर न हुई दीद-ए-बुताँ से अपनी दफ़्तर-ए-हुस्न को अज्ज़ा-ए-परेशाँ समझा न हुई जल्वा-गह-ए-नाज़ की वुसअत मालूम गो मैं हर ज़र्रा को इक दीदा-ए-हैराँ समझा थी तिरी याद भी क्या अंजुमन-आरा-ए-ख़याल दिल में जो शोला उठा शम-ए-शबिस्ताँ समझा शोरिश-ए-इश्क़ का आसान न था अंदाज़ा चाक हो कर मिरी वहशत को गरेबाँ समझा साहिब-ए-दिल है वही मुर्शिद-ए-कामिल है वही मेरे चेहरे से जो मेरा ग़म-ए-पिन्हाँ समझा हर नफ़स शाहिद-ए-दुश्वारी-ए-उल्फ़त है 'नज़र' सख़्त मुश्किल था वही काम जो आसाँ समझा