वादी-ए-शौक़ में जो शो'ला-ब-दामाँ निकला वाक़िफ़-ए-रस्म-ओ-रह-ए-कूचा-ए-जानाँ निकला फ़िक्र-ए-फ़र्दा ग़म-ए-दोशीना से आज़ाद हुआ ख़ुश-नसीब अपना दिल-ए-सोख़्ता-सामाँ निकला तुझ से उम्मीद हो क्या दश्त-नवर्दों को बहार तेरा हर हौसला पाबंद-ए-गुलिस्ताँ निकला फ़स्ल-ए-गुल रंग-ए-चमन क़ाफ़िला-ए-अब्र-ए-बहार इन में कोई न शरीक-ए-ग़म-ए-इंसाँ निकला क्या सितम है दिल-ए-नाशाद को ये दौर-ए-बहार नाज़-पर्वर्दा-ए-अरबाब-ए-गुलिस्ताँ निकला फ़हम-ओ-इदराक से आगे है यक़ीं की मंज़िल अक़्ल का इज्ज़ ही सर-चश्मा-ए-ईमाँ निकला जावेदाँ हो न सकी उम्र बड़ी ख़ैर हुई ग़म-ज़दा ज़ीस्त पे ये भी तिरा एहसाँ निकला हर्फ़-गीरी तो हुई दस्त-ए-ज़ुलेख़ा पे मगर शौक़ हर हाल में वाबस्ता-ए-दामाँ निकला