वफ़ाओं का अपनी सिला चाहता हूँ फ़ना हो के रंग-ए-बक़ा चाहता हूँ सबब बे-क़रारी का मेरी यही है कि मैं हासिल-ए-मुद्दआ चाहता हूँ छुपाऊँ मैं किस तरह राज़-ए-मोहब्बत निगाहों से ज़ाहिर है क्या चाहता हूँ मोहब्बत की मय हो कि हो ज़हर-ए-उल्फ़त सुकूँ जिस से हो वो दवा चाहता हूँ सँभाल आ के ऐ ना-ख़ुदा-ए-मोहब्बत वगर्ना मैं अब डूबना चाहता हूँ 'रियाज़' उन के मुँह से जो पहले सुना था वही मुज़्दा-ए-जाँ-फ़ज़ा चाहता हूँ