वही हम हैं और वही सोज़-ए-ग़म वही सुब्ह और वही शाम है मगर आह उन को ये क्या हुआ न सलाम है न पयाम है न वो शिकवे हैं न शिकायतें न वो क़िस्से हैं न हिकायतें न वो लुत्फ़-ए-गुफ़्त-ओ-शुनीद है न वो जल्वा-ए-लब-ओ-बाम है है उदास महफ़िल-ए-मय-कशी न वो मस्तियाँ न वो सरख़ुशी न नशात-ए-नग़्मा-ओ-साज़ है न सुरूर-ए-बादा-ओ-जाम है हुए इंक़िलाब हज़ार-हा फ़लक-ओ-ज़मीं में पर आज तक मिरे दिल में तेरी ही याद है मिरे लब पे तेरा ही नाम है मिरा उन का क्या है मुक़ाबला मैं ख़िज़ाँ हूँ और वो बहार हैं उन्हें जाम-ए-ऐश हलाल है मुझे ख़्वाब-ए-ऐश हराम है न हुआ विसाल नसीब अगर तो मुझे ज़रा भी गिला नहीं तिरे ग़म की उम्र दराज़ हो कि इसी में लुत्फ़-ए-दवाम है तिरा दस्त-ए-शौक़ पहुँच सके कभी उन के दामन-ए-नाज़ तक ये नसीब तेरे कहाँ 'वली' ये तिरा तख़य्युल-ए-ख़ाम है