वाइज़ करे है बात शराब-ए-तहूर की अंधे को सूझती है अंधेरे में दूर की हम आ रे बैल मार मुझे के नहीं मुरीद हम को पड़ी है क्या कि करें सैर तूर की ऐ गर्दिश-ए-हयात तिरा लाख शुक्रिया मिट्टी पलीद ख़ूब की चेहरे के नूर की ले आएँगे ख़रीद के सय्याद क्या नहीं बंदे को ऐसी चाह नहीं है तुयूर की मौक़े पे बे-ख़ुदी भी न करने दे इख़्तियार चाहत मिरी बला ही करे इस शुऊ'र की या-रब इसी जहान में कट जाए चैन से ग़िलमान की है चाह न ख़्वाहिश है हूर की हर माह चार मुर्ग़ ही मिल जाएँ जो 'नदीम' रह जाए लाज मेरे सर-ए-पुर-ग़ुरूर की