मा'रके में इश्क़ के सर से गुज़रने से न डर गर उठाता है तो ये जोखों तो मरने से न डर जान-ए-मन तेरा गरेबाँ-गीर हो सकता है कौन आशिक़ों के ख़ूँ में तू दामन के भरने से न डर ज़ाहिदा तू सोहबत-ए-रिंदाँ में आया है तो सुन तर्क गाली का न कर पगड़ी उतरने से न डर गर सुबुक-बारी की ख़्वाहिश है तो उस क़ातिल से फिर ज़िंदगी इक बोझ है सर का उतरने से न डर उस के हर हल्क़े में हैं दिल से परेशानों के साथ ये न कह हमदम कि ज़ुल्फ़ उस की बिखरने से न डर उस के कूचे में क़दम रखते हुए कटता है सर सर को रख ले हाथ पर और पाँव धरने से न डर दिल दिया तू ने 'मुहिब' अब ख़ौफ़ है किस चीज़ का दो-दो बातें ज़ेहन से जिस वक़्त करने से न डर