वक़्त अपना हो तो तूफ़ान-ओ-बला कुछ भी नहीं बर्क़ गिरने को गिरी और हुआ कुछ भी नहीं मैं ने इक उम्र गुज़ारी है तिरी फ़ुर्क़त में क्या मुक़द्दर में मिरे इस के सिवा कुछ भी नहीं सिर्फ़ हाथों को उठाने का नतीजा क्या है हो सलीक़ा न दुआ का तो दुआ कुछ भी नहीं जाने भर जाते हैं किस तरह गुलों से दामन मेरे दामन में तो काँटों के सिवा कुछ भी नहीं बात ज़ख़्मों की कहो कर्ब की तशरीह करो अब मोहब्बत के फ़साने में रहा कुछ भी नहीं दर्द-ओ-ग़म आह-ओ-फ़ुग़ाँ सोज़-ए-निहाँ अश्क रवाँ दोस्तो इस के सिवा मेरा पता कुछ भी नहीं चंद सिक्कों के लिए शौक़ से बिक जाते हैं आज के दौर में इंसाँ की अना कुछ भी नहीं रौशनी जितनी थी सब लूट ली अँधियारों ने अब उजालों में 'सहर' और बचा कुछ भी नहीं