ज़िंदगी मेरी कभी ग़म से जुदा हो न सकी दर्द बढ़ता ही गया और दवा हो न सकी ज़िंदगी मैं ने बहुत नाज़ उठाए तेरे ये अलग बात कि तुझ से ही वफ़ा हो न सकी जाने किस दौर में क्या जुर्म किया था हम ने ज़िंदगी बीत गई ख़त्म सज़ा न हो सकी फूल ही फूल हैं हर शाख़-ए-गुलिस्ताँ पे मगर मेरी तक़दीर ही अफ़्सोस रसा हो न सकी साथ सब छोड़ गए हिज्र में मेरा लेकिन क्यों तिरी याद मिरे दिल से जुदा हो न सकी आदमी टूट गया जुस्तुजू करते करते ज़िंदगी दाम-ए-मुसीबत से रिहा हो न सकी बिछ गई धूप हर इक सम्त उजालों की मगर दूर दिल से मिरे ज़ुल्मत की घटा हो न सकी सोचता रहता हूँ अक्सर शब-ए-तन्हाई में ज़िंदगी क्यों मिरी मरहून-ए-दुआ हो न सकी क्या अजब चीज़ है इज़हार-ए-मोहब्बत भी 'सहर' बात लम्हों की थी सदियों में अदा हो न सकी