वक़्त ने सब तहरीर किया मिरे ख़द्द-ओ-ख़ाल पे क्या गुज़री तेरे बा'द जो साथ चले थे उन मह-ओ-साल पे क्या गुज़री दस्त-ए-करम ने दाद तो पाई दाद-ओ-दहिश की महफ़िल में दस्त-ए-करम ने ये नहीं सोचा दस्त-ए-सवाल पे क्या गुज़री ख़ून है लफ़्ज़ों आवाज़ों में ख़ामोशी में लाशें हैं मस्लहतों के अह्द में देखो शहर-ए-ख़याल पे क्या गुज़री नूर-ए-सहर में नहाने वाले शब-आसूदा क्यों सोचें जिस का लहू था रौनक़-ए-शब उस शम्-ए-जमाल पे क्या गुज़री सब की निगाहें तुम पर हैं क्या पूछे कोई ऐसे में तुम को देख के जो गुम-सुम है उस बेहाल पे क्या गुज़री 'क़ैसी' साहब बस्ती-बस्ती खोटे सिक्कों का है चलन ये मत पूछो अहल-ए-हुनर के हुस्न-ए-कमाल पे क्या गुज़री