वारफ़्तगी में अपना निशाँ भी नहीं उठा यूँ राख हम हुए कि धुआँ भी नहीं उठा ग़ारत-गरों ने शहर ही ताराज कर दिए हम से शिकस्त-ए-दिल का गुमाँ भी नहीं उठा ऐ सुब्ह-ए-नौ फ़ुज़ूल रहा तेरा इंतिज़ार तुझ से तो ख़ुफ़तगी का निशाँ भी नहीं उठा बर्बाद यूँ हुए कि उड़ी तक न राख भी यूँ बुझ गया दिया कि धुआँ भी नहीं उठा