वतन की आन बचाने में पेश-दस्ती रही शुबह में फिर भी हमारी वतन-परस्ती रही पयाम-ए-अम्न के नारों का शोर था बरपा लगी थी आग जो बस्ती में वो दहकती रही समुंदरों का बुलावा था वो भी क्या करता गुज़रते अब्र को प्यासी ज़मीन तकती रही हवा न जाने बदन किस का छू के आई थी गली हमारी कई रोज़ तक महकती रही यही है क़द्रों की 'इमरान' पासबानी क्या ज़मीर मरता गया और अना पनपती रही