वो आँखें ही नहीं जिन का किनारा नम नहीं होता वो दिल दिल ही नहीं जिस का मुक़द्दर ग़म नहीं होता बहारों में उजड़ जाती हैं फूलों से भरी बेलें झुलस कर राख होने का कोई मौसम नहीं होता बिछड़ने की शराइत भी अगर तय मिल के कर लेते तुझे भी ग़म नहीं होता मुझे भी ग़म नहीं होता हमें अब रौशनी की और ही तफ़्हीम करनी है चराग़ों को जलाने से अंधेरा कम नहीं होता ये राज़-ए-इश्क़ है इस की रिवायत है यही साहब भड़क उट्ठे जो ये शो'ला तो फिर मद्धम नहीं होता