वो बन-सँवर के सर-ए-शाम जब निकलते हैं नज़र नज़र में हज़ारों चराग़ जलते हैं वो अपनी आग में रोज़-ए-अज़ल से जलते हैं ये फ़ैसले हैं मुक़द्दर के कब बदलते हैं तुम अपने गोशा-ए-दामाँ को फिर क़रीब करो हमारे अश्क-ए-रवाँ मोतियों में ढलते हैं वही तो लाएक़-ए-अज़्मत हैं बज़्म-ए-हस्ती में जो लोग गिरते हैं गिर गिर के फिर सँभलते हैं वो हम से तर्क-ए-तअ'ल्लुक़ भी कर चुके लेकिन न जाने आज भी क्यों लोग हम से जलते हैं पता बहार की आमद का ऐसे चलता है क़फ़स की आ के वो जब तीलियाँ बदलते हैं ग़म-ए-फ़िराक़ हो 'हैरत' कि गर्दिश-ए-दौराँ न जाने कब से मिरे साथ साथ चलते हैं