वो चश्म-ए-मस्त-ए-नाज़ जो बादा-फ़रोश हो काफ़िर है जिस को पीने पिलाने का होश हो ऐ इज़्तिराब-ए-ज़ब्त-ए-अलम मौज-ए-शौक़ क्या दिल डूब जाए ग़म में ज़माना ख़मोश हो आँधी का क्या क़ुसूर है बिजली की क्या ख़ता गुलचीं ही जब बहार-ए-गुलिस्ताँ-फ़रोश हो चश्म-ए-करम की मुझ को तमन्ना नहीं मगर मेरी तबाहियों का उन्हें कुछ तो होश हो ऐ ख़ालिक़-ए-बहार ये इंसाफ़ है तिरा कोई क़फ़स में कोई गुलिस्ताँ-बदोश हो कैसा ख़याल आज अज़ाब-ओ-सवाब का आई बहार मश्ग़ला-ए-नाओ-नोश हो इस वास्ते हिजाब-ए-तजल्ली में छुप रहे मेरे जुनून-ए-शौक़-ए-मोहब्बत में जोश हो ऐ बे-ख़ुदी-ए-कैफ़-ए-जुनूँ ऐ ग़म-ए-तमाम अपना नहीं न हो मुझे उन का तो होश हो देख ऐ 'वकील' दिल में ख़याल-ए-फ़ुग़ाँ ग़लत ये उन की बज़्म-ए-नाज़ है ज़ालिम ख़मोश हो