वो घड़ी दिल पे थी क़यामत की जब तिरी चाहतों ने हिजरत की क्या कोई हुस्न का सहीफ़ा था आँख ने देर तक तिलावत की और शिद्दत से याद आया वो जब उसे भूलने की जुरअत की दिल जलाओ अगर चराग़ बुझें रौशनी कम न हो मोहब्बत की माँगती है लहू के नज़राने हम से हर ईंट इस इमारत की उस ने की मुझ को सब्र की तल्क़ीन दी दुआ मैं ने इस्तक़ामत की क़त्ल-ख़ानों में जी रहे हैं हम दाद दीजे हमारी हिम्मत की देख तीरों से फूल छलनी हैं कोई हद होती है अदावत की क़स्र-ए-फ़िरऔँ में पल रहे हैं कलीम क्या अजब शान है मशिय्यत की बुझ चली शम्अ-ए-बज़्म-ए-नाव-नोश सर पे तय्यारियाँ हैं रेहलत की दर्द जब हद से बढ़ गया 'बज़्मी' दर्द से दर्द की शिकायत की