वो इश्क़ की मख़्सूस अदा को नहीं समझा नादान अभी ख़ू-ए-वफ़ा को नहीं समझा तक़दीर से बेज़ार है तदबीर से नालाँ अफ़्सोस है फ़िरऔन दुआ को नहीं समझा वो इश्क़ की मंज़िल को कभी पा नहीं सकता जो शख़्स कि अंदाज़-ए-जफ़ा को नहीं समझा करता न कभी चाक गरेबान को मजनूँ कम-फ़हम था वो सब्र-ओ-रज़ा को नहीं समझा क्या जाने वो है कौन से औसाफ़ का मालिक जो शख़्स कभी जूद-ओ-सख़ा को नहीं समझा महबूब था कल आज हिक़ारत के है दर पे क्या समझेगा जो अपनी ख़ता को नहीं समझा इसरार तजल्ली का जो करता है मुसलसल वो मस्लहत-ए-जल्वा-नुमा को नहीं समझा झुकता है जो ज़ालिम के किसी ज़ुल्म के आगे क्यों साफ़ न कह दूँ वो ख़ुदा को नहीं समझा मैं इस के लिए रखता हूँ इख़्लास-ओ-मोहब्बत जो शख़्स अभी सिद्क़-ओ-सफ़ा को नहीं समझा गिरता न कभी ज़ुल्मत-ओ-ज़िल्लत के गढ़े में सद-हैफ़ कि वो दार-ए-फ़ना को नहीं समझा इस ज़ीस्त के मक़्सद को जो समझा नहीं 'साइर' सच जानिए वो राज़-ए-बक़ा को नहीं समझा