वो जवानी न रही अब वो ज़माने न रहे अह्द-ए-हंगाम-ए-मोहब्बत के फ़साने न रहे क़द्र-ए-हस्ती थी मुझे बहर-ए-इनायात-ए-बुताँ वो जो जीने के बहाने थे बहाने न रहे साज़-ए-बरबत की नवा है न वो आवाज़-ए-तरब गुनगुनाते थे जिन्हें अब वो तराने न रहे वो जो बैठे थे घड़ी भर को मिरी महफ़िल में थे जो दो चार मिरे यार-ओ-यगाने न रहे जज़्बा-ए-शौक़-ए-सफ़र अपनी जगह है लेकिन न सफ़ीना रहा कोई वो ठिकाने न रहे ख़ोशा-ए-उम्र से गिरते रहे साआ'त-ए-गिराँ ख़ोशा-ए-उम्र में अब वक़्त के दाने न रहे कोई कहता था तआ'रुफ़ में मिरी तुर्बत पर कूचा-ए-इश्क़ के 'सय्यद' वो दिवाने न रहे