वो जो अपने वास्ते इक ख़ास मंज़र ढूँढता है वो यक़ीनन कुछ न कुछ अपने बराबर ढूँढता है जाने किस किस से नगर में आज-कल नाराज़ है वो हर बशर में जो वफ़ादारी का पैकर ढूँढता है डूब जाती है तलातुम को जो अपने साथ ले कर ऐसी कश्ती को हर इक जानिब समुंदर ढूँढता है फूल से नाज़ुक वो होता है ज़माने भर की ख़ातिर अपने सर के वास्ते जो सख़्त पत्थर ढूँढता है इन सवालों की चुभन क्या चीज़ है 'आबिद' से पूछो आदमी जिन के जवाब अपने ही अंदर ढूँढता है